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आज भी धरती पर जीवित है ये अष्टचिरंजीवी


                                                   


सनातन धर्म के अनुसार, कुछ ऐसे देवता या योद्धा हैं जिन्हें चिरंजीवी कहा जाता है, और कहा जाता है कि वे अभी भी इस धरती पर जीवित हैं। 

वह अष्टचिरंजीवी हैं: अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और ऋषि मार्कण्डेय।


महर्षि वेदव्यास: इन्हे चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है।
परशुराम: भगवान शिव के वरदान के कारण। 
हनुमानजी: माता सीता द्वारा दिए गए वरदान के कारण।
अश्वत्थामा: भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए श्राप के कारण।
राजा बलि: भगवान विष्णु द्वारा दिए गए वरदान के कारण।
विभीषण: प्रभु श्री राम द्वारा दिए गए वरदान के कारण।
कृपाचार्य: इन्हे चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है।
ऋषि मार्कण्डेय: भगवान शिव के वरदान के कारण। 


महर्षि वेद व्यास को भगवान श्रीहरि का अंश कहा जाता है। महर्षि वेद व्यास का नाम कृष्ण द्वैपायन था। महर्षि वेद व्यास, सत्यवती और ऋषि पराशर के पुत्र है। महर्षि वेद व्यास ने श्रीमदभगवद् महापुराण समेत कई धार्मिक ग्रंथों की रचना की थी। वेदों के भाग करने के कारण उन्हें वेद व्यास कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) के रचनाकार हैं। उन्होंने 18 पुराणों की भी रचना की है। महर्षि वेद व्यास ने ही महाभारत भगवान गणेशजी से लिखवाई थी। वे 28वें वेद व्यास है। महर्षि वेदव्यास, पितमाह भीष्म के सौतेले भाई थे। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर महर्षि वेद व्यास के ही पुत्र है। इन्हीं पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई संतान नहीं हुई तो महर्षि वेदव्यास की कृपा से ही धृतराष्ट्र के घर 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ। महर्षि वेदव्यास के जन्मदिन के अवसर पर ही गुरू पुर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। 
 
महर्षि कलयुग के अंत तक जीवित रहेंगे। वे भगवान कल्की अवतार के साथ होंगे। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात् बहुत समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे और उसके उपरांत महर्षि वेदव्यास तप और ध्यान के लिए हिमालय के पर्वतो में लौट गए थे। कलियुग के शुरू होने के बाद महर्षि वेदव्यास के बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। कहा जाता है कि पहली जातक कथा में उन्हें 'बोधिसत्व' कहा गया है। दूसरी कथा में उन्हें महाभारत का रचयिता और इससे जुड़ा हुआ व्यक्ति बताया गया है।

परशुराम भगवान विष्णु के छठवें अवतार हैं। भगवान परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे शिव भगवान के बहुत बड़े भक्त थे और हमेशा शिव के तप में लीन रहते थे। उनकी अटूट भक्ति को देखकर स्वयं महादेव शिव ने उन्हें अमरता का वरदान दिया था। महादेव ने इनके तप से प्रसन्न होकर इन्हे एक फरसा दिया था जिसे भगवान परशुराम जी सदैव अपने साथ ही रखते है। भगवान परशुराम जी का उल्लेख रामायण और महाभारत दोनों में मिलता है।

वैसे तो भगवान परशुराम जी रामायण काल के पहले से ही जीवित हैं। इनकी माता का नाम रेणुका और पिता का नाम जमदग्नि था। रामायण में भगवान परशुराम का उल्लेख तब मिलता है जब भगवान श्रीराम सीता स्वयंवर के मौके पर शिव का धनुष तोड़ देते हैं तब भगवान परशुराम यह जानने के लिए सभा में आते हैं कि आखिरकार यह धनुष तोडा किसने। महाभारत में भगवान परशुराम का उल्लेख तब मिलता है जब वे भीष्म पितामाह के गुरु बने थे और एक प्रसंग के अनुसार उनका भीष्म के साथ युद्ध भी हुआ था। दूसरा जब वे भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र प्रदान करते हैं और तीसरा जब वे महाबली कर्ण को ब्रह्मास्त्र की शिक्षा देते हैं।

भगवान परशुराम भी चिरंजीवी हैं। वे भी महर्षि वेद व्यास की ही तरह कलयुग में कल्की अवतार के साथ होंगे।

हनुमान जी को अमरता का वरदान सीता माता द्वारा दिया गया था। हनुमान जी जब श्रीरामजी का संदेशा लेकर सीताजी के पास अशोक वाटिका (रावण की लंका) गए थे, तब माता सीता ने उनकी भक्ति-भावना और प्रभु श्रीराम के प्रति समर्पण को देखते हुए अमरत्व का वरदान दिया था। हनुमान जी आज भी धरती पर ही वास करते हैं और भगवान श्रीराम की भक्ति में मग्न हैं। हनुमान जी, भगवान शिव के अवतार है।

सर्वशक्तिमान और श्रद्धालुओ के कृपालु बजरंगबली के कारण ही त्रेतायुग में श्रीरामजी ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। हनुमान जी का प्रताप चारों युगों में है। वे त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम के समय भी थे और द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के समय भी थे। महाभारत के युद्ध में हनुमानजी के कारण ही पांडवों को जीत मिली थी। अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण को उन्होंने रक्षा का वचन दिया था तभी वे अर्जुन के रथ के ध्वज पर विराजमान हो गए थे। भीम के अभिमान को भी हनुमानजी ने चूर चूर कर दिया था। जब एक स्थान पर भीम उनसे उनकी पूंछ हटाने को कहते है तो हनुमानजी कहते हैं आप तो शक्तिशाली है कृपया आप ही मेरी पूंछ हटा दे। लेकिन महाबली भीम अपनी सारी शक्ति लगाकर भी जब पूंछ हिला भी नहीं पाते तो भीम समझ जाते हैं कि यह कोई साधारण वानर नहीं बल्कि स्वयं हनुमानजी ही हैं।

अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र और रुद्रा के अवतार है। जब अश्वथामा का जन्म हुआ था तो उनके मुँह से अश्व जैसी आवाज़ निकली थी इसीलिए उनका नाम अश्वत्थामा रखा गया। अश्वत्थामा को महाभारत के युद्ध में कोई भी योद्धा हरा नहीं पाया था। अश्वत्थामा को अमरता, श्राप के कारण प्राप्त हुई। अश्वत्थामा एक श्राप की वजह से अमर हो गए है। अश्वत्थामा ने  महाभारत युद्ध के दौरान अपने पिता द्रोणाचार्य के वध का प्रतिशोध लेने के लिए अनीति का सहारा लिया था। उन्होंने सोते हुए पांडवों-पुत्रो का वध कर दिया था जिसके फलस्वरूप भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें कलयुग के अंत तक धरती के चक्कर लगाने का श्राप/दंड दिया है। अश्वथामा के मस्तक पर एक मणि शोभायमान थी, जिसे अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण के आदेश पर दंडवश निकाल लिया था। इसी श्राप के कारण आज भी अश्वत्थामा पृथ्वी पर भटक रहे है व अश्वत्थामा के मस्तक पर मणि निकलने के कारण एक घाव है जिसमे से रक्त निरंतर रिस्ता रहता है। कलयुग के अंतिम चरण में जब भगवान कल्कि अवतार लेंगे तो उनके साथ मिलकर अश्वत्थामा धर्म की लड़ाई लड़ेंगे।

राजा बलि एक महान असुर राजा और दानवीर थे, जो भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पोते और ऋषि कश्यप के वंशज है। भगवान विष्णु जी जब वामन का भेष धारण करके राजा बलि की परीक्षा लेने आए थे तब राजा बलि ने अपनी दानशीलता के कारण, भगवान विष्णु के वामन अवतार को तीन पग भूमि दान की थी, वामन ने राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी थी। राजा बलि ने दान देने की प्रतिज्ञा की थी और वामन ने एक ही पग में पूरी पृथ्वी और दूसरे पग में पूरा स्वर्गलोक नाप दिया था, तीसरा पग रखने के लिए जब कोई जगह मिली तब वामन भगवान से राजा बलि ने अपने मस्तक पर तीसरा पग रखने को कहा। इस बात से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने राजा बलि को अमरता का वरदान दिया। आज भी राजा बलि पाताल लोक में वास कर रहे हैं। राजा बलि को चिरंजीवी (अमर) होने का वरदान मिला हुआ है और केरल के 'ओणम' पर्व के दौरान वे अपनी प्रजा से मिलने के लिए पृथ्वी पर आते हैं। मथुरा में राजा बलि का एक टीला भी है। 

विभीषण, ऋषि विश्रवा और कैकसी के सबसे छोटे पुत्र है। उनके बड़े भाई रावण और कुंभकर्ण थे। रावण के सबसे छोटे सौतेले भाई, व साथ ही प्रभु श्रीराम के परम भक्त विभीषण को अमरता का वरदान स्वयं भगवान श्रीराम ने दिया था। रावण द्वारा माता सीता के हरण के पश्चात् उन्होंने धर्म के मार्ग पर चलने के लिए अपने भाई का साथ छोड़कर भगवान श्रीराम का साथ दिया था। राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद, विभीषण की विचारधारा अत्यंत धार्मिक थी, वो हमेशा धर्म के मार्ग पर चलते थे। उन्होंने अपने लिए धर्म में स्थिर रहने का वरदान मांगा था। उन्हें रामायण युद्ध के बाद श्रीराम द्वारा लंका नरेश बनाया गया। विभीषण चिरंजीवी है और आज भी विभीषण पृथ्वी लोक पर वास करते हैं।

कृपाचार्य, पांडवों और कौरवों के गुरु हैं। वे अष्ट चिरंजीवियों में से एक है। वह अश्वत्थामा के मामा है, क्योकि बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य से हुआ था। कृपाचार्य उन तीन तपस्वियों में से एक थे जिन्हे भगवान श्री कृष्ण के विराट रूप दर्शन हुए थे। कृपाचार्या ने दुर्योधन को पांडवों से सन्धि करने के लिए बहुत समझाया था, लेकिन दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी। कृपाचार्य को ऐसे ही सुकर्मों के कारण ही अमरत्व का वरदान प्राप्त था। उन्हें यह वरदान उनकी निष्पक्षता, अनुशासन और धर्म का पालन करने के कारण मिला था। उन्होंने सत्य और धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा। महाभारत युद्ध में कृपाचार्य ने कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ा था। उनका नाम परम तपस्वी ऋषियों में शामिल है। 

ऋषि मार्कण्डेय भगवान शिव के परम भक्त है। वह अल्पायु लेकर जन्मे थे। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि ऋषि मार्कण्डेय की सोलह वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाएगी। लेकिन भगवान शिव स्वयं यमराज से उनके प्राणों की रक्षा करने के लिए अवतरित हुए। ऋषि मार्कण्डेय ने शिवजी को तप कर प्रसन्न किया और महामृत्युंजय मंत्र सिद्धि के कारण चिरंजीवी बन गए। मार्कण्डेय ऋषि को भगवान शिव से चिरंजीवी होने का वरदान मिला हुआ है।  

ऋषि मार्कण्डेय ने ही वनवास के दौरान युधिष्ठिर को रामायण सुनाकर धैर्य रखने को कहा। दूसरी ओर महर्षि जैमिनी के मन में महाभारत युद्ध और श्रीकृष्ण को लेकर कुछ संदेह था तो मार्कण्डेय ऋषि ने ही उनके संदेह का निवारण किया। इनके नाम पर 'मार्कण्डेय पुराण' है। 

ऋषि मार्कण्डेय के कई मंदिर हैं, जैसे वाराणसी में मार्कण्डेय महादेव मंदिर, जहाँ श्रद्धालु पुत्र प्राप्ति और पति की लंबी आयु के लिए आते हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में यमुनोत्री मार्ग पर एक तीर्थस्थल है, जिसे मार्कण्डेय तीर्थ के नाम से जाना जाता है, जहाँ उन्होंने मार्कण्डेय पुराण लिखा था। 


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