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भगवान बृहस्पतिदेव जी की कथा

 


बोल विष्णु भगवान जी की जय ! बोल भगवान बृहस्पतिदेव जी की जय !

भगवान बृहस्पतिदेव जी की कथा

प्राचीन समय में भारतवर्ष में एक प्रतापी और दानी राजा राज्य करता था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्मणों को दान करता था। यह बात उसकी रानी को बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी, वह न ही गरीबों को दान देती, न ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी।

एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे, तब रानी महल में अकेली थी। उसी समय भगवान् बृहस्पतिदेव साधु के वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और रानी से भिक्षा माँगी। रानी ने भिक्षा देने से मना कर दिया और कहा ! हे साधु महाराज मैं तो दान-पुण्य से तंग आ गई हूँ। मेरा पति सारा धन यूँ ही लुटाते रहते हैं। मेरी इच्छा है कि हमारा सारा धन नष्ट हो जाए।  जिस से मुझे इस समस्या से छुटकारा मिले। 

साधु ने कहा ! देवी तुम तो बड़ी विचित्र हो। धन और सन्तान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए। यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो गरीबो को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ, दान - पुण्य करो। जो निर्धन अपनी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो। ऐसे और बहुत से काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यश लोक-परलोक में फैलेगा।

परन्तु रानी पर प्रवचन का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली ! महाराज आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बाँटती फिरूं।

साधु रूपी बृहस्पतिदेव भगवान् ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तथास्तु ! तुम ऐसा करना कि सात बृहस्पतिवार को घर गोबर से लीपकर अपने केश धोकर स्नान करना, भट्‌टी चढ़ाकर कपड़े धोना,  राजा को खाने में मदिरा और मास देना।  ऐसा करने से तुम्हारा सभी धन नष्ट हो जाएगा और आपको इस समस्या से छुटकारा मिल जायेगा। इतना कहकर वह साधु महाराज वहाँ से चल गये।

साधु के अनुसार कहे कामो को पूरा करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे, कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई। राजा का परिवार भूखो मरने लगा। 

तब एक दिन राजा ने रानी से बोला कि हे रानी, तुम यहीं रहो, मैं दूसरे नगर को जाता हूँ, क्योंकि यहाँ पर सभी लोग मुझे जानते हैं। इसलिए मैं कोई छोटा-मोटा काम नहीं कर सकता। ऐसा कहकर राजा दूसरे नगर की ओर चला गया। वहाँ वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा। इधर, राजा के परदेस जाते ही रानी और उसकी दासी दुखी रहने लगी।

एक बार रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा ! हे दासी! समीप के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और कुछ अनाज ले आ,  जिससे कुछ दिन तो हम भोजन कर सकेंगे। दासी रानी की बहन के घर की ओर चल दी।

उस दिन बृहस्पतिवार था और उस समय रानी की बहन बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी। दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन कथा सुनने की वजह से रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर न दिया। जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर न मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया। दासी ने वापस आकर रानी को सारी आपबीती बता दी। सुनकर रानी ने कहा की हे ! दासी यह सब हमारे भाग्य का दोष है।

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे बात न कर सकी, मेरे इस व्यवहार से वह बहुत दुखी हुई होगी।

कथा सुनकर और पूजन समाप्त करके वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी।  हे बहन! जब तुम्हारी दासी आई थी तब मैं भगवान बृहस्पतिदेव की कथा सुन रही थी। जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही कुछ बोलते हैं, इसलिए मैं उससे नहीं बोली। कहो दासी मेरे पास क्यों आई थी?

रानी बोली ! बहन, तुम्हे क्या बताऊँ, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं है। पिछले सात दिन से कुछ न खाया है। ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई। उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की आपबीती अपनी बहन को सुना दी।

रानी की बहन बोली ! देखो बहन! भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं। तुम भगवान् बृहस्पतिदेव का नाम लेकर घर के किसी लोटे में टटोल के देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज मिल जाए।

रानी को लगा की उसकी बहन उसकी गरीबी का मज़ाक उड़ा रही है। बहन के बार-बार आग्रह करने पर उसने भगवान् बृहस्पतिदेव का नाम लेकर अपनी दासी को रसोई में भेजा तो दासी को सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया। यह देखकर रानी और उसकी दासी को बड़ी हैरानी हुई।

तब दासी ने रानी से कहा, की हे रानी ! जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं न, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें। तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिदेव की कथा और व्रत के बारे में पूछा।

तब उसकी बहन ने बताया, बृहस्पतिवार के दिन चने की दाल, गुड़ और मुनक्का से भगवान विष्णु जी नाम लेकर केले की जड़ में पूजन करें तथा घी का दीपक जलाएं, व्रत कथा कहे अथवा सुनें और उस दिन पीला भोजन ही करें। इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं। व्रत और पूजन विधि बताकर रानी की बहन अपने नगर को लौट गई।

सात दिन के बाद जब गुरुवार आया, तो रानी और उसकी दासी ने बृहस्पतिदेव का व्रत रखा। दासी घुड़साल में जाकर चना और गुड़ मांगकर ले आईं। फिर उससे केले की जड़ में भगवान विष्णु जी का पूजन किया। लेकिन संध्या में व्रत खोलने के लिए पीले भोजन की व्यवस्था न थी। इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थी। चूंकि उन्होंने व्रत रखा था, इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे। इसलिए भगवान बृहस्पतिदेव एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में पीला भोजन दासी को दे गए। भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और संध्या में उसने रानी से कहा की हे रानी आकर भोजन कर लो। रानी ने दासी से कहा की दासी क्यों मज़ाक करती हो। तब दासी ने रानी को कहा की एक व्यक्ति मुझे दो थालो में पीला भोजन देकर गया है। तब दोनों ने साथ मिलकर  भोजन ग्रहण किया।

उसके बाद वे सभी गुरुवार को भगवान बृहस्पतिदेव का व्रत और पूजन करने लगी। बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, धन पाकर रानी फिर से पहले की तरह आलसी हो गई।

तब दासी बोली, हे रानी! तुम पहले भी इस प्रकार आलस करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान बृहस्पतिदेव की कृपा से हमे धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस होता है।

रानी को समझाते हुए दासी बोली कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे व्यक्तियों को भोजन कराना चाहिए, और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे। दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, रानी ने नगर में धर्मशालाएं बनवाई, प्याऊ बनवाये, गरीबो और ज़रूरतमंदो को दान दिया। जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा।

एक दिन रानी को राजा की याद सताने लगी।  उसने दासी से कहा की हे! दासी मेरी फूहड़ता के कारण राजा को कितने कष्ट भोगने पड़े। न जाने राजा किस हाल में होंगे। उसी रात भगवान बृहस्पति देव ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा की हे! राजा तुम्हारी रानी तुम्हे बहुत याद करती है। अब तुम अपने नगर को लौट जाओ। 

अगले दिन राजा दुखी मन से जंगल में लकड़ी काट रहा था। वह सोच रहा था की रानी की फूहड़ता के कारण उसे कितने कष्ट भोगने पड़ रहे है।  वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। उस दिन बृहस्पतिवार का दिन था, तभी उसने देखा कि वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पतिदेव थे।

लकड़हारे के सामने आकर साधु बोले, हे लकड़हारे ! इस सुनसान जंगल में तू चिन्ता मग्न क्यों बैठा है?

लकड़हारे ने दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और उत्तर दिया, हे महात्मा! आप सब कुछ जानते हैं, मैं क्या कहूँ। यह कहकर लकड़हारा रोने लगा और साधु को अपनी आपबीती सुनाई।

साधू ने कहा, तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पतिवार के दिन बृहस्पतिदेव भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। लेकिन अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहे अनुसार चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक धन-सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पतिवार के दिन केले के पेड़ की जड़ में कथा किया करो। चने और मुनक्का लाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में गुड़ मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और आसपास के लोगो में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण करो। ऐसा करने से भगवान बृहस्पतिदेव तुम्हारी सभी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे।

साधु के ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला, हे प्रभु! मुझे लकड़ी काटकर बेचने से इतना धन नहीं मिलता की जिससे भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि स्वप्न में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मुझे समझ नहीं आ रहा की मैं क्या करूँ। 

तब साधु ने कहा, हे लकड़हारे! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पतिवार के दिन तुम हर रोज़ भाँती लकड़ियाँ काटकर शहर को जाओ। तुम्हे और दिनों के मुकाबले अधिक धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भोजन भी कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा की सामग्री भी ले सकोगे।

इतना कहकर साधु ने लकड़हारे को भगवान बृहस्पतिदेव जी की कथा सुनाई। 

प्राचीनकाल में एक निर्धन ब्राहमण था। उसके को‌ई संन्तान न थी। वह नित्य स्नानादि करके पूजा-पाठ करता लेकिन उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवी-देवता का पूजन करती। इस कारण ब्राहमण बहुत दुखी रहते थे।


भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक सुन्दर कन्या ने जन्म लिया। कन्या जैसे-जैसे बड़ी होने लगी वह विष्णु भगवान का पूजन करने लगी। प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जाप करती और गुड़, चने की दाल लेकर भगवान बृहस्पतिदेव का व्रत व् पूजन करती। पूजन के बाद वह पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में जौ डालती जाती। लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो वह उनको बीनकर घर ले आती। एक दिन वह कन्या सूप में सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी। सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी होना चाहिये।


अगले दिन बृहस्पतिवार था। कन्या ने व्रत रखा और भगवान बृहस्पतिदेव से प्रार्थना की अगर मैंने आपका पूजन दिल से किया हो तो कृपया मुझे सोने का सूप देवे। भगवान बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या पाठशाला के रस्ते में जौ डालती हु‌ई पाठशाला चली ग‌ई। पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो भगवान बृहस्पतिदेव की कृपा से उसे रस्ते में सोने का सूप पड़ा मिला। उसे वह घर ले आ‌ई और उसमे सोने के जौ को फटककर साफ करने लगी। जब वह सोने के सूप में जौ साफ़ कर रही थी उसी समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला। कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया। राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर बैठ गया।

राजा को जब राजकुमार द्वारा अन्न-जल त्यागने का समाचार मिला तो वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा। राजकुमार ने राजा से कहा की उसे उस कन्या से विवाह करना है जो सोने के सूप में जौ साफ़ कर रही थी। राजा ने पूछा की हे राजकुमार ऐसी कोई कन्या है तो बताओ। तब राजकुमार ने उस लड़की के घर का पता राजा को बता दिया। राजा उस लड़की के घर गया। राजा ने ब्राहमण से अपने पुत्र के विवाह की बात कही। कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।

कन्या के घर से जाते ही ब्राह्मण फिर पहले की तरह गरीब हो गया। एक दिन दुखी होकर ब्राह्मण अपनी पुत्री से मिलने महल गया। बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा तब ब्राह्मण ने सभी हाल कह सुनाया। कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा किया। लेकिन उस धन से कुछ दिन तो सब ठीक चला लेकिन धन समाप्त होने के बाद ब्राह्मण की स्तिथि पहले जैसी हो गई। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहा तो पुत्री बोली, हे पिताजी। आखिर आप कब तक इस तरह जीवन यापन करोगे। आप एक काम करो आप माताजी को यहाँ लिवा ला‌ओ। मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जा‌ए। ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुँच गया। पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जा‌एगी। परन्तु उसकी मां ने उसकी एक न सुनी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बच्चो की झूठन खा ली।

उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कक्ष में बंद कर दिया। प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्धि ठीक हो ग‌ई।

इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक बृहस्पतिवार को भगवान बृहस्पतिदेव का पूजन और व्रत करने लगी। इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को ग‌ई। ब्राह्मण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को गया। 

बोल विष्णु भगवान जी की जय ! बोल भगवान बृहस्पतिदेव जी की जय !


कथा कहकर साधु रुपी भगवान बृहस्पतिदेव अन्तर्ध्यान हो गए। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया, उसे उस दिन और दिन से अधिक धन मिला। राजा ने चना, मुनक्का और गुड़ आदि लाकर भगवान बृहस्पतिदेव का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए, परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो वह बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पतिदेव भगवान नाराज हो गए।

उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करवाई कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न करे, समस्त नगर की जनता मेरे यहाँ आकर भोजन करे। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसे फाँसी की सजा दी जाएगी। इस तरह की घोषणा उसने सम्पूर्ण नगर में करवा दी।

राजा की आज्ञानुसार नगर के सभी लोग राजा के यहाँ भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर बेचने की वजह से देरी हो गई और वह राजा के यहाँ भोजन करने न जा सका। राजा के सैनिक लकड़हारे को पकड़कर राजा के सामने ले गए। तब राजा लकड़हारे को अपने महल में ले गए और अपने महल में ही एक कक्ष में लकड़हारे को भोजन परोसवा दिया। उसी कक्ष में एक खूंटी पर रानी का हार लटक रहा था। एकाएक लकड़हारे ने की वह हार अपने आप गायब हो गया। तभी कक्ष में रानी आई और रानी ने खूँटी पर देखा की उसका हार अब वहां नहीं है। रानी ने सोचा की अवशय ही लकड़हारे ने उसका हार चुराया है। रानी ने उसी समय राजा से कहकर लकड़हारे को कारागार में डलवा दिया। 

जब लकड़हारा कारागार में गया और बहुत दुखी मन से विचार करने लगा कि न जाने किस जन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हो रहा है, और उसी साधु को याद करने लगा जो कि उसे जंगल में मिला था।

उसी समय बृहस्पतिदेव साधु के रूप में लकड़हारे के सामने प्रकट हुए और उसकी दशा को देखकर कहने लगे, हे लकड़हारे! तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे। तू उनसे बृहस्पतिदेव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे।

बृहस्पतिवार के दिन लकड़हारे को कारागार के दरवाज़े पर चार पैसे पड़े मिले। लकड़हारे ने उन पैसो से गुड़ और चने की दाल मंगवाकर कथा कही। उसी रात्रि बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजन! तूमने जिस आदमी को कारागार में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। उसे कारागार से मुक्त कर देना। अगले दिन प्रातःकाल उस नगर के राजा ने देखा की रानी का हार खूँटी पर लटक रहा है। राजा ने लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा लकड़हारे को बहुत सा धन और आभूषण देकर विदा कर दिया। बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया।

राजा जब अपने नगर पहुँचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब, कुएं तथा बहुत सी धर्मशालाये, मन्दिर आदि बन गई हैं। राजा ने पूछा यह सब किसने बनवाया है। तब नगर के लोगो ने राजा को बताया की यह सब रानी और उसकी दासी ने बनवाये है। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। 

जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा महल में आ रहे हैं, तो उन्होंने दासी से कहा कि, हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरे हालत में छोड़कर गए थे। लेकिन अब हमारी ऐसी हालत देखकर वह कहीं वापस न लौट जायें, इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी होजा। आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। राजा जब महल में आए तो दासी उन्हें अपने साथ रानी के पास ले गई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है, तब रानी ने बताया की यह सब धन बृहस्पतिदेव के आशीर्वाद से प्राप्त हुआ है और रानी ने राजा को सभी आपबीती कह सुनाई।

राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी भगवान बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं परन्तु मैं प्रतिदिन भगवान बृहस्पतिदेव का पूजन किया करूँगा और दिन में तीन बार कथा कहा करूँगा और प्रतिदिन व्रत किया करूँगा। अब हर समय राजा के अपने दुपट्‌टे में चने की दाल और गुड़ बांधे रहता।

एक रोज राजा ने विचार किया कि बहुत दिनों से बहन से नहीं मिले चलो अपनी बहन के यहाँ हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार होकर अपनी बहन के यहाँ चल दिया। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक अर्थी पर मुर्दे को लिए जा रहे हैं, उन्हें रोककर राजा ने कहा अरे भाइयों! मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो।

लोग बोले हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु उन्ही लोगो में से कुछ आदमी बोले की चलते चलते ही तुम अपनी कथा सुना लो। राजा ने अपने दुप्पटे से चने की दाल और गुड़ निकालकर कथा कहनी शुरू की। जब कथा आधी ही हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हुई तो वह मुर्दा जीवित होकर उठ खड़ा हुआ। 

आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देखा और उस किसान से अपनी कथा सुनने को कहा। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक मैं कितना हल जोत लूंगा। तू जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। किसान की बात सुनकर राजा आगे चल दिया। राजा के जाते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बड़ी जोर का दर्द होने लगा। उसी समय किसान की धर्मपत्नी खाना लेकर आई, उसने जब यह देखा तो किसान से सब हाल पूछा और किसान ने घुड़सवार का हाल कह सुनाया। तो किसान की धर्मपत्नी दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी लेकिन तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही सुनना। राजा ने किसान के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही वह बैल उठ खड़ हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी तुरंत बन्द हो गया।

राजा अपनी बहन के घर पहुँचा। बहन ने भाई की खूब सत्कार किया। अगले दिन प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा किसी को अपनी कथा सुनाये बिना भोजन न करता था। 

राजा ने अपनी बहन से कहा महल में ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन न किया हो, और वह मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले।

बहन बोली हे भैया! यह महल तो क्या यहाँ पूरे नगर में आपको कोई ऐसा व्यक्ति न मिलेगा जिसने सुबह सुबह उठकर भोजन न किया हो। यह नगर ऐसा ही है कि पहले यहाँ लोग भोजन करते हैं, बाद में अन्य काम करते हैं। 

इतना सुनकर राजा उस नगर में बिना भोजन किये व्यक्ति की तलाश करने के लिए निकल पड़ा। बहुत तलाश के बाद राजा को एक कुम्हार के घर कुम्हार का लड़का मिला जिसने बीमार होने की वजह से उस दिन भोजन नहीं किया था। राजा ने कुम्हार के लड़के को भगवान बृहस्पतिदेव की कथा सुनाई। कथा सुनते ही कुम्हार का लड़का ठीक हो कर तुरंत खड़ा हो गया। सबने राजा की बहुत प्रशंसा की। पूरे नगर में राजा का गुणगान हो गया।

एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन! हम मैं अपने घर को वापस जाना चाहता हूँ। तुम भी कुछ दिनों के लिए मेरे साथ चलो कुछ दिन रहकर वापस लौट आना। राजा की बात सुनकर राजा की बहन की सास ने कहा की हे बहु जाना है तो तुम अकेले जाना लेकिन बच्चो को न लेकर जाना। तुम्हारे भाई के कोई संतान नहीं है कही तुम्हारी बभी ने बच्चो पर टोना-टोटका कर दिया तो। सास की बाते सुनकर राजा बहुत दुखी हुआ और अकेला ही अपने घर को लौट गया। 

बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। रानी ने पूछा की क्या हुआ आप तो अपनी बहन को साथ लाने की बात कहकर गए थे। आप उन्हें नहीं लाये ?

राजा ने अपनी रानी से कहा हे रानी हमारे कोई संतान नहीं है इसीलिए कोई हमारे घर आना पसंद नहीं करता।

रानी बोली हे राजन! भगवान बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वह हमें संतान भी अवश्य देंगे।

उसी रात को बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा हे राजा उठो। सभी सोच त्याग दो, तेरी रानी गर्भ से है। राजा को यह जानकार बहुत खुशी हुई। नवें महीने रानी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। 

इस तरह राजा रानी भगवान बृहस्पतिदेव का नाम लेकर बैकुंठ धाम को पधार गए और मोक्ष की प्राप्ति की।  

भगवान बृहस्पतिदेव सभी की मनोकामना‌एं पूर्ण करते है। जो मनुष्य सदभावनापूर्वक बृहस्पतिवार की कथा कहता या सुनता है और व्रत करता है भगवान बृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामना‌एं पूर्ण करते है। जैसे सच्चे भाव से रानी और राजा ने बृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी मनोइच्छा‌एं भगवान बृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की। सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। 

बोल विष्णु भगवान जी की जय ! बोल भगवान बृहस्पतिदेव जी की जय !

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